1857 क्रान्ति और रानी लक्ष्मीबाई

1857 क्रान्ति और रानी लक्ष्मीबाई

रानी के पेट से खून बह रहा था और एक जांघ शून्य हो गई थी। एक ब्रिटिश सैनिक की तलवार ने उनका दाहिना गाल चीर दिया था, इसके बाद तो रानी ने उस सैनिक का हाथ अपनी तलवार से ही काट दिया था। उनकी आँखें सुर्ख थीं। रानी का अंगरक्षक व बहादुर योद्धा गुल मुहम्मद भी उनके दुख को सहन नहीं कर सका और रोने लगा। रानी के विश्वस्त रामचंद्र राव ने रोते हुए बालक दामोदर को घोड़े पर बैठाया, रानी को अपनी गोद में लिया और संत बाबा गंगादास के आश्रम की ओर भागे। पीछे-पीछे रघुनाथसिंह और गुल मोहम्मद भी गए। अंधकार में भी बाबा गंगादास ने रानी के रक्त से सने मुख को पहचान लिया। उन्होने ठंडे जल से उनका मुख धोया, गंगाजल पिलाया। तब जाकर रानी को थोड़ी चेतना आई और लड़खड़ाते होंठों से उन्होने कहा, ‘‘हर-हर महादेव।’’ इसके बाद वह अचेत हो गई। थोड़ी देर बाद रानी ने कठिनाई के साथ पुनः अपनी आँखें खोलीं और भगवत गीता के श्लोकों का उच्चारण किया। उनकी आवाज क्षीण हो रही थी, उनके अंतिम शब्द थे, ‘‘वासुदेव, मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ।’’ इसके बाद झाँसी का भाग्य अस्त हो गया।

18 जून 1858 तक लक्ष्मीबाई की उम्र मात्र साढ़े 22 वर्ष थी। ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज, जो रानी से कई बार लड़ा परन्तु बार-बार पराजित हुआ। उसने भी रानी के युद्धकौशल को देखते हुए यह कहा था, ‘‘भारतीय क्रान्तिकारियों में यह अकेली मर्द है।’’ बहादुर व तेजस्वी रानी ने केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व की महिलाओं को भी गौरवान्वित किया। उनका जीवन पवित्र था। नारीत्व, साहस, और शहादत की एक उत्तेजक कथा था उनका जीवन। थीं तो वह महिला, किन्तु उनमें सिंह के समान तेज था। जब वह युद्ध के लिए जातीं और हाथ में शस्त्र उठाती तब वह युद्ध की देवी काली की ही प्रतिमूर्ति दिखाई देती थीं। वह सुंदर थीं परन्तु दुर्बल थीं लेकिन उनकी प्रतिभा ने पुरुषों को भी मात कर दिया था। आयु में वह छोटी थीं किन्तु उनकी राजनीतिक निपुणता के कारण उनके दूरदर्शी और दृढ़ निर्णय बड़े-बड़ों को भी दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देते थे।

19 नवम्बर सन् 1835 को वाराणसी में मराठी ब्राह्मण परिवार के मोरोपन्त और भागीरथी बाई के लिए खुशियों का दिन था, जब एक सुन्दर कन्या ने उनके यहाँ जन्म लिया। विशाल मस्तक व बड़ी आंखें उसके तेज को व्यक्त कर रही थीं। जन्म के कुछ समय बाद एक ज्योतिषी ने उस कन्या की जन्मपत्री देखकर बताया था कि यह कन्या तुम्हारे पूरे परिवार का नाम सदियों तक अमर कर देगी। उस समय तो माता-पिता को विश्वास नहीं हुआ। पर मणिकर्णिका, जिसे वे प्यार से ‘मनु’ कहते थे, की बातचीत व व्यवहार देखकर उन्हें उस ज्योतिषी की बात पर धीरे-धीरे यकीन होने लगा था।

4 वर्ष की उम्र में मनु की माँ का देहान्त हो गया तो पुत्री के पूर्ण पालन-पोषण की जिम्मेदारी मोरोपन्त पर आ गई थी। मनु ने छोटी सी उम्र में ही तलवार व बन्दूक चलाना सीख लिया था। घुड़सवारी तो मनु का पसंदीदा शौक था। पिता मोरोपन्त को बेटी के विवाह की चिन्ता हुई तो उन्होंने मात्र 7 वर्ष की उम्र में ही मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ कर दिया। अब गरीब ब्राह्मण की बेटी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन चुकी थी।

19वीं शताब्दी में वह समय था भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के विस्तार का। अंग्रेज, जो भारत में व्यापार करने आये थे, उनके इरादे नेक नहीं थे। धीरे-धीरे उनकी कुटिल चालें उजागर हो रही थीं। ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम पर अंग्रेजों ने तेजी से भारत की राजनीतिक सत्ता को हथियाना शुरु कर दिया था। कई भारतीय राजा उनके कृपापात्र बन चुके थे, क्यों कि उनमें एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी थी और अंग्रेजों ने उनकी इसी आपसी फूट का फायदा उठाया। वह दौर ऐसा था कि भारत का दुर्भाग्य कहें या अंग्रजों का भाग्य, प्रत्येक घटना ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में सहायक सिद्ध हो रही थी। बुन्देलखण्ड में भी मराठा कमजोर पड़ चुके थे। बाजीराव तो केवल नाम के पेशवा रह गये थे, ईस्ट इंडिया कम्पनी उन्हें प्रतिवर्ष 8 लाख रुपये की पेंशन दे रही थी और बिठूर की जागीर भी उन्हें दे दी गई थी। 

उधर झाँसी की सत्ता और ब्रिटिश शासन के बीच भी एक संधि हुई, जिसकी पहली शर्त थी कि जब अंग्रेजों को सहायता की आवश्यकता होगी उस समय झाँसी राज्य सहायता करेगा और दूसरी कि झाँसी के शासक की नियुक्ति अंग्रेजों की स्वीकृति पर निर्भर होगी। गंगाधर राव एक बहादुुर व समझदार राजा थे, उन्हें पता था कि झाँसी का राजकोष खाली हो चुका है। उन्होंने राज्य का शासन सुव्यवस्थित करने के साथ सेना को भी मजबूत करना शुरु कर दिया। अब झाँसी राज्य में हाथी, घोड़े बड़ी संख्या में थे, शस्त्रागार में अस्त्र-शस्त्रों एवं तोपखाने के लिए गोला-बारूद प्रचुर मात्रा में मौजूद था। राजा गंगाधर राव की सेना में 5000 पैदल सैनिक व 500 घुड़सवार थे। उस समय केवल सेना पर ही प्रतिवर्ष 22 लाख रुपये खर्च किए जाते थे।

इसी बीच 1851 में महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर 3 माह में ही बच्चे की मृत्यु हो गई। गंगाधर के लिए यह एक गंभीर आघात था। महाराज गंगाधर गहरे अवसाद में रहने लगे, उनकी चिन्ता का कारण था लाॅर्ड डलहौजी का राज्य हड़पने का क्रूर फरमान। महाराज गंगाधर और रानी ने 1853 में अपने ही परिवार के एक बालक दामोदर राव को विधिवत गोद लिया। और लाॅर्ड डलहौजी को पत्र लिखकर अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को उनके उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दिए जाने का अनुरोध किया। लेकिन डलहौजी इसी तरह के मौके की तलाश में था। उसने महाराज गंगाधर राव के अनुरोध को अस्वीकृत कर दिया। इसी बीच 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव का निधन हो गया। आखिरकार डलहौजी ने झाँसी राज्य को अंग्रेजी शासन में शामिल करने का फरमान जारी कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने जैसे ही यह सुना, तो उन्होंने कहा, ‘‘असम्भव, मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी।’’

रानी ने भावावेश में एक ऐसा निर्णय ले लिया था, जिसकी कल्पना करना भी उन दिनों असम्भव था। पेशवा अंग्रेजों के आगे झुके हुए थे, दिल्ली का बादशाह अशक्त सा हो चुका था। अंग्रेजी राज्य का अंग बनने के बाद रानी को खर्च के लिए 5 हजार रु. की मासिक पेंशन मिलने लगी थी। रानी इस अपमान को सहती हुई अन्दर ही अन्दर अपनी शक्ति बढ़ाने में लग गईं। अंग्रेजों को लगता कि एक विधवा और असहाय रानी अब उनके राह में रोड़ा नहीं है। पर रानी की योजना तो कुछ और ही थी। अपनी दिनचर्या के साथ-साथ वे तलवार व बन्दूक चलाने का निरन्तर अभ्यास करतीं। रानी को घुड़सवारी के साथ शरीर को मजबूत बनाये रखने के लिए व्यायाम भी करतीं। रानी महल से पुरुष वेश में बाहर निकलतीं। गंगाधर राव की मृत्यु के बाद विधवा रानी अपना सिर मुंडाना चाहती थीं जिसके लिए उन्हंे बनारस जाना था, पर अंग्रेजों ने इसकी अनुमति नहीं दी। इस पर रानी लक्ष्मीबाई ने शपथ ली, ‘‘देश को आजाद कराकर ही मैं अपना सिर मुड़ाउंगी, अन्यथा यह काम श्मशान भूमि में होगा।’’

दिन यूं ही बीत रहे थे। रानी अपमान का घूंट पीकर अपना अगला कदम तैयार कर रही थीं। जिन राजाओं का उत्तराधिकारी न होने के कारण राज्य छिन गया था, उनमें भी असन्तोष व्याप्त था। उन सभी से रानी समय-समय पर मिलकर मंत्रणा करती थीं। तात्या टोपे और नाना साहब से वे अक्सर मिलती थीं। सन् 1857 प्रारम्भ हो चुका था, तात्या टोपे, नाना साहब और रानी में मंत्रणा हुई। तात्या टोपे चाहते थे कि अब समय आ गया है देश को आजादी दिलाने का। परन्तु रानी ने उन्हें धीरज से काम लेने को कहा। बैठक में तय हुआ कि सम्पूर्ण देश में जनता 31 मई को विद्रोह करे। और क्रान्ति का प्रतीक चुना गया ‘कमल का फूल’। इस निर्णय को देश भर में फैलाने का काम किया तात्या टोपे ने। तात्या टोपे ने अपने विश्वस्त लोगों की एक टीम बनाई, एक रोटी के साथ क्रान्ति का सन्देश किसी नगर में भेजा जाता व उनसे भी यही सन्देश अगले नगर में भेजने को कहा जाता। इस प्रकार कम समय में ही क्रान्ति का सन्देश देश के अधिकांश हिस्से में पहुंच चुका था।

किन्तु भाग्य को ये मंजूर नहीं था। मेरठ की बैरकपुर छावनी में हुई विद्रोह की चिंगारी ने 31 मई से पहले ही आग भड़का दी। लाॅर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान क्रान्ति हुई। 10 मई 1857 को मेरठ से प्रारम्भ हुई क्रान्ति धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैलने लगी थी। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु बाद में उसका स्वरूप बदला और यह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। 

10 मई से प्रारम्भ हुआ यह खुला विद्रोह धीरे-धीरे क्रान्ति की भावना उत्पन्न कर रहा था। 12 मई को दिल्ली में अधिकार के साथ क्रान्तिकारियों के हौसले बुलन्द हुए। इन क्रान्तिकारियों ने अपदस्थ मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर द्वितीय को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। इसके साथ ही आग की तरह यह क्रान्ति पहले लखनऊ, कानपुर, बरेली, झांसी, इलाहाबाद, बनारस होते हुए बिहार तक जा पहुंची। 4 जून को झाँसी का शासन रानी के हाथ में आ गया। शासन की बागडोर सम्भालने के बाद रानी ने राज्य की कई व्यवस्थाओं में सुधार किए। सेना को मजबूत करने के साथ राज्य का खाली हो चुका खजाना भी भरा गया। झाँसी का प्रत्येक घर युद्ध की तैयारी कर रहा था। हर कोई अपने लिए शस्त्र तैयार कर रहा था। 

इधर अपनी हार से बौखलाए अंग्रेजों ने रणनीति बनाकर अमल करना शुरु किया। जिसका परिणाम था कि शीघ्र ही 21 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों का दिल्ली पर पुनः अधिकार हो गया। इस संघर्ष में अंग्रेजों ने बहादुरशाह द्वितीय को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया, जहाँ बाद में कैद में उनकी मृत्यु हो गई तथा उसके दोनों पुत्रों मिर्जा मुगल व मिर्जा ख्वाजा सुल्तान तथा पोते मिर्जा को मरवा दिया। 

इधर 23 मार्च 1858 को अंग्रेज अधिकारी ह्यूरोज ने अपनी सेना के साथ झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी की सेना तैयार तो थी पर अंग्रेजों की सेना और उनकी तोपों के आगे सेना भी कमजोर पड़ रही थी। अब परीक्षा की घड़ी थी, रानी ने शस्त्र उठाया और वीरता से लड़ीं। अंग्रेजी सेना को कई बार उन्होंने पीछे हटने को मजबूर कर दिया। धीरे-धीरे सेना के कई जवान मारे जा चुके थे। रानी ने आनन-फानन में एक बैठक की और बताया, ‘‘हमारे 4000 सैनिकों में से अब 300 से 400 सैनिक ही बचे हैं। तोप दागने वाले सैनिक भी अब हमारे साथ नहीं हैं। ऐसे में यहाँ से निकलना ही बेहतर विकल्प है और बाहर रहकर हम अपने आप को फिर से संगठित कर झाँसी को आजाद करायेंगे।’’ सभी ने रानी के इस फैसले पर सहमति जताई।

कुछ योद्धाओं की टुकड़ी अपने साथ लेकर रानी किले से बाहर निकलीं। अंग्रेजी सेना और रानी के बीच जमकर युद्ध हुआ। रानी अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर युद्ध लड़ते-लड़ते कालपी पहुंची। तात्या टोपे से मिलने के बाद रानी फिर से सेना जुटा ही रही थीं कि ह्यूरोज ने कालपी पहुंच कर घेराबंदी शुरु कर दी। रानी लक्ष्मीबाई अपने साथियों के साथ ग्वालियर की ओर निकल पड़ीं। उधर ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया ने देखा कि उसकी अधिकांश सेना रानी लक्ष्मीबाई के साथ हो गई है तो वह आगरा भाग गया।

16 जून 1858 को एक बार फिर अंग्रेजी सेना और रानी की सेना में भीषण संग्राम हुआ। लेकिन उस दिन विजय रानी की हुई। अब ह्यूरोज ने एक चाल चली। उसने जयाजीराव सिंधिया से अपने सैनिकों को इस गलती के लिए क्षमा करने के लिए कहा और उनके पक्ष में युद्ध करने को कहा। जयाजीराव के घोषित क्षमादान से उसके सैनिक अंग्रेजों के साथ हो गये।

17 जून 1858 को रानी ने अपने विश्वासपात्र रामचन्द्र राव से कहा, ‘‘आज युद्ध का अन्तिम दिन दिखाई पड़ रहा है। यदि मेरी मृत्यु हो जाये तो मेरे पुत्र दामोदर राव के जीवन की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है और इस बात का विशेष ध्यान रहे कि मेरा शव उनके हाथ में न पड़े जो मेरे धर्म के नहीं हैं।’’

इस दिन ह्यूरोज की शक्ति बढ़ चुकी थी, ग्वालियर की सेना उसके साथ थी। अंग्रेजी सेना बाढ़ के समान किले में दाखिल हो रही थी। रानी के सामने अब वहां से निकल भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ में बांधे, घोड़े की लगाम दांतों में दबाए रानी दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई किले से निकलीं। उनके विश्वस्त योद्धा भी उनकी रक्षा करते और अंग्रेजों से लड़ते उनके पीछे-पीछे निकले। युद्ध में रानी काफी घायल हो चुकी थीं। उनके शरीर का खून तेजी से बह रहा था।
घायल रानी को लेकर उनके साथी बाबा गंगादास के आश्रम पहुंचे। पर भाग्य झाँसी के साथ नहीं था। क्षत-विक्षत रानी ने बाबा गंगादास के आश्रम में अन्तिम सांस ली। सूर्यास्त के साथ ही झाँसी का भी भाग्यास्त हो चुका था।

745 साधुओं के बलिदान की कहानी 
देश के पहले स्वतन्त्रता संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर की रक्षा करने वाले 745 साधुओं के पराक्रम को जानना बेहद जरूरी है। सन्त गंगादास के आश्रम में आज भी उन 745 साधुओं की समाधियां बनी हुई हैं, जो यह बताती हैं कि अंग्रजों की दासता से मुक्ति के लिए उस स्वतन्त्रता संग्राम में सांसारिक मोहमाया से दूर साधुओं के मन में भी बेचैनी थी। 

ग्वालियर की लक्ष्मीबाई कालोनी में स्थित संत गंगादास की बड़ी शाला के नाम से विख्यात इस शाला में साधुओं के पराक्रम की गाथा कहने वाली कई चीजें मौजूद हैं। भाले, तलवार, नेजे, चिमटे व तोप जैसे हथियारों का इस शाला में पर्याप्त संग्रह है। इस शाला को स्थापित करने वाले महंत परमानन्द गोसाईं ने अकबर को भी सिर झुकाने पर मजबूर कर दिया था। वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई और 745 साधुओं के बलिदान को याद करते हुए आज भी यहाँ अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित होती है।

1857 की क्रान्ति में इस शाला के नौवें महन्त संत गंगादास महाराज ने अपने 1200 साधुओं के साथ अंगे्रजी सेना से युद्ध किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने प्राण त्यागने से पूर्व उनसे दो वचन लिए थे, पहला उनके पुत्र दामोदर राव की रक्षा का वचन और दूसरा यह कि मरने के बाद उनके शव को अंग्रेजी सेना हाथ न लगा पाये। इन्हीं दो वचनों को निभाने के लिए वे 1200 साधु, संत गंगादास की अगुवाई में लड़े। और अंग्रेज सैनिकों से रानी के शव की रक्षा की। इस लड़ाई में 745 साधुओं ने वीरगति प्राप्त की। अन्त में रानी के शव को उस आश्रम की एक झोपड़ी में रखकर उसमें आग लगा दी गई। रानी के मरने के बाद भी अंग्रेज उनके शव को हाथ भी न लगा सके थे।

1857 की क्रान्ति कोई अचानक भड़का हुआ विद्रोह नहीं था, वरन इसके साथ अनेक आधारभूत कारण थे। राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक कारणों के अलावा सैनिक असन्तोष की भूमिका इस क्रान्ति में सबसे बड़ी थी। लाॅर्ड डलहौजी की ‘गोद निषेध’ जिसे ‘राज्य हड़प नीति’ भी कहते हैं, को माना जाता है। डलहौजी ने अपनी इस नीति के अन्तर्गत सतारा, नागपुर, सम्भलपुर, झांसी तथा बरार आदि राज्यों पर अधिकार कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप इन राजवंशों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असन्तोष व्याप्त हो गया।

1857 के क्रान्ति के कारण

  • लाॅर्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति इस क्रान्ति के प्रमुख कारणों में से एक थी।
  • मुगल सम्राट को मात्र राजा का दर्जा दिया गया तथा उनसे लाल किला छीनकर उन्हें अन्यत्र रहने को मजबूर किया गया।
  • भारतीयों का धन तेजी से इंग्लैण्ड गया। मुक्त व्यापार व अंग्रेजी वस्त्रों के भारतीय बाजार में अधिक मात्रा में आ जाने के कारण इसका प्रभाव यहाँ के कुटीर उद्योगों में पड़ा, फलस्वरूप कुटीर उद्योगों के नष्ट होने से लाखों लोग बेरोजगार हो गये।
  • लाॅर्ड विलियम बेंटिक के शासनकाल में दान की हुई भूमि को वापस छीन लिया गया जिससे जमींदार कंगाल हो गये। इससे जमींदारों में असन्तोष भड़का।
  • सेना में पहला धार्मिक विरोध हुआ 1806 में, जब सैनिकों के माथे पर तिलक लगाने व पगड़ी पहनने पर रोक लगाई गई। धीरे-धीरे सुलगता हुआ असन्तोष उस समय भड़क गया जब गाय और सुअर के चर्बीयुक्त कारतूसों का प्रयोग किया जाने लगा। इस घटना ने ही 1857 की क्रान्ति को सबसे पहले भड़काया।
  • 29 मार्च 1857 को मंगल पांडे नाम के सैनिक ने अंग्रेज अफसरों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। हालांकि इस विद्रोह को तुरन्त दबा भी दिया गया।
  • दूसरा खुला विद्रोह 10 मई 1857 को प्रारम्भ हुआ। विद्रोहियों ने अंग्रेज अफसरों को अपनी गोली का निशाना बनाया। मंगल पांडे ने हियरसे को गोली मारी और अफसर बाग की हत्या कर दी।

क्रान्ति की असफलता के कारण 

  • यह क्रान्ति असंगठित व स्थानीय स्तर तक ही सीमित थी।
  • इस क्रान्ति में राष्ट्रीय भावना का पूर्ण अभाव था।
  • क्रान्ति के नायकों में एकता, अनुभव व संगठन विस्तार की क्षमता का अभाव था।
  • दक्षिण के राज्यों ने इस क्रान्ति के विरोध में अंग्रेजों को पूरा समर्थन दिया। नेपाल ने भी अंग्रेजों को काफी मदद की।
  • राजस्थान में कोटा व अलवर के अतिरिक्त कहीं पर इस क्रान्ति का कोई प्रभाव नहीं था।
  • भारतीय राजाओं ने अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति दिखाई जिनमें ग्वालियर के सिंधिया, हैदराबाद के सलारगंज, भोपाल की बेगम, नेपाल का मंत्री जंग बहादुर, पंजाब के सिख सरदार, कश्मीर के गुलाब सिंह आदि प्रमुख थे।
  • अच्छे साधन व धनाभाव भी इस क्रान्ति की असफलता का मुख्य कारण था।
  • अंग्रेजी हथियारों के सामने भारतीय हथियार बौने साबित हुये।
  • बहादुरशाह जफर व नाना साहब कुशल संगठनकर्ता तो थे पर उनमें नेतृत्व क्षमता नहीं थी।
  • क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य व स्पष्ट योजना नहीं थी। वे केवल भावावेश के साथ और परिस्थितिवश ही आगे बढ़ रहे थे।
  • व्यापारियों और शिक्षित वर्ग ने भी इस दौरान उदासनी भूमिका दिखाई। यदि यह वर्ग क्रान्तिकारियों के पक्ष में लेख और सभायें करता तो निश्चित ही इसके परिणा कुछ और होते।
  • लाॅर्ड कैनिंग ने कहा था कि यदि सिन्धिया भी इस विद्रोह में शामिल हो गये तो मुझे कल ही भारत छोड़ना होगा। मतलब सामंतवादियों के एक वर्ग ने तो इस क्रान्ति का साथ दिया परन्तु अन्य के विरोध के कारण यह क्रान्ति असफल हुई।

क्रान्ति के परिणाम 
सैकड़ो वर्षों से गुलाम भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये समाज के कुछ वर्गों द्वारा प्रारम्भ यह पहली क्रान्ति थी। इस महान क्रान्ति की असफलता ने ब्रिटिश शासन को काफी कुछ बदलने को मजबूर किया। अंग्रेज यह जान गये थे कि इस देश की बागडोर को यदि सही प्रकार से नहीं थामा गया तो उन्हें देश छोड़ना पड़ सकता है। लिहाजा उन्होंने कुछ परिवर्तन किये।

  • ब्रिटिश संसद ने एक कानून पारित कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया।
  • भारत पर पूरा शासन का अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया।
  • सेना में यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई तथा उच्च सैनिक पदों में भारतीयों की नियुक्तियाँ बन्द कर दी गईं।
  • भारतीय उच्च जाति के सैनिकों की भर्ती बन्द कर दीं तथा तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेजी सेना ने आधिपत्य जमा लिया।
  • इंग्लैण्ड में एक भारतीय राज्य सचिव की व्यवस्था की तथा इसके अन्तर्गत 15 सदस्यीय मंत्रणा परिषद् बनाई गई।
  • स्थानीय लोगों को उनका गौरव एवं अधिकारों को वापस करने की बात कही गई।
  • भारतीय राजाओं के साथ सन्धि में एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण न करने की बात हुई।
  • धार्मिक आधार पर हो रहा शोषण खत्म करने की बात हुई।

हालांकि इनमें से बहुत सी बातों व सन्धियों को अंग्रेजों द्वारा बाद में मानने से मना भी कर दिया गया था। लेकिन इसके साथ-साथ भारतीय समाज में भी परिवर्तन हुआ। सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई थी, क्योंकि इसी वर्ग ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह को दबाने में उनकी भरपूर मदद की थी। 1857 की क्रान्ति के फलस्वरूप भारतीयों में एकता का सूत्रपात हुआ। अब तक अलग-थलग और एक दूसरे से लड़ रहे हिन्दू-मुस्लिम एकता ने जोर पकड़ना शुरू किया। हिन्दू व मुसलमानों के लिये राष्ट्रीय एकता की यही भावना आगे चलकर राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में दिखाई दी। 1857 की क्रान्ति से पहले अंग्रेजों की साम्राज्य विस्तार की नीति हावी थी परन्तु क्रान्ति के बाद अंग्रेजी राज्य में आर्थिक शोषण का युग आरम्भ हुआ। अंग्रेज पूरी तरह से मन बना चुके थे कि अब भारत में अपने शासन की जड़ंे मजबूत करना है।

गजेटियर के पन्ने पलटने पर यह भी मालूम होता है कि 1857 में क्रान्ति की शुरुआत से लगभग 15 वर्ष पहले ही चित्रकूट में क्रान्ति की चिंगारी भड़की थी पर यह इतिहास शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा। उस समय हिन्दुओं की पवित्र मन्दाकिनी नदी के तट पर अंग्रेज अफसर गायों का वध कराकर उसके बदले में बिहार व बंगाल से हथियार व रसद मंगाते थे। धर्मपरायण हिन्दुओं से गौमाता की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी। गौ हत्या से जनता विचलित तो थी पर अंग्रेजों के खौफ के कारण उनके मुंह बन्द थे। उनमें से कुछ ने आसपास के राजाओं से गुहार भी लगाई पर अंग्रेजी शासन के खिलाफ बोलने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। लोगों में धीरे-धीरे प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी। तब बुन्देलखण्ड के हरबोलों ने इस क्रान्ति की अलख जगाई।

दरअसल हरबोले, अपने को वासुदेव कृष्ण के वंशज बताते थे, इसी कारण उन्हें बसदेवा भी कहा जाता था। हरबोले सुबह-सुबह बस्तियों में एक खास धुन में गाना गाते हुए कृष्ण की लीलाओं का बखान करते थे, इससे उन्हें बस्तियों के घरों से अन्न, वस्त्र इत्यादि मिलता था। जब कोई भी अंग्रेजों के खिलाफ कुछ न कर सका तो हरबोलों ने अपने गीतों में सामाजिक व धार्मिक चेतना का समावेश किया, इसी चेतना ने लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध एक कर दिया। सीधे-सादे हरबोलों के गीतों में वीर रस का संचार हो रहा था। इसी का परिणाम था कि 6 जून 1842 को हजारों की संख्या में जन साधारण ने मऊ तहसील को घेरकर अंग्रेज अफसरों को बन्दी बनाया और जनता अदालत लगाकर पाँच अफसरों को फांसी दे दी।

इस क्रान्ति की ज्वाला आसपास के क्षेत्रों तक तेजी से पहुंची। हालांकि अंग्रेजों की मदद को पहुंचे उनके तमाम चापलूस राजाओं की एक न चली और उनके सैनिक भी क्रान्तिकारियों से मिल गये। तब अंग्रेज भागकर बाँदा पहुंचे लेकिन क्रान्तिकारियों की फौज ने वहाँ भी उनका पीछा किया और 15 जून 1842 को बाँदा छावनी के प्रभारी काकरेल का सिर धड़ से अलग कर बाँदा व चित्रकूट क्षेत्र को कुछ समय के लिए ही सही पर आजाद घोषित कर दिया। हरबोलों के इसी जनजागृति अभियान से प्रेरित होकर प्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चैहान ने लिखा है,

‘‘बुन्देले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’’

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