आयुर्वेद का चित्रकूट से अनादि सम्बन्ध

आयुर्वेद का चित्रकूट से अनादि सम्बन्ध

यावता चित्रकूटस्य नरः शृंगाण्य वेक्षते।

कल्याणानि समाधन्ते न पापं कुरुते मनः।

जब मानव के कल्याणकारी पुण्य कर्मों का फल उदय होता है, तभी उसे चित्रकूट के शिखरों के दर्शन का अवसर प्राप्त होता है। चित्रकूट के श्रृंगों का दर्शन कर लेने और उसका महत्व जान लेने के बाद व्यक्ति का मन पापकर्मों की ओर प्रवृत्त नहीं होता।

भगवान् श्रीराम अपनी वनवास यात्रा में जब अयोध्या से प्रयाग (इलाहाबाद) आये, तब प्रयाग के तत्कालीन महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम जाकर  नसे अपने निवास के लिए उपयुक्त और उत्तम स्थान पूछा। महर्षि भरद्वाज ने चित्रकूट का महत्व बताते हुए उन्हें चित्रकूट में ही निवास के लिए उपयुक्त और उत्तम स्थान पूछा। महर्षि भरद्वाज ने चित्रकूट का महत्व बताते हुए उन्हें चित्रकूट में ही निवास करने का सुझाव दिया। महर्षि भरद्वाज के बताने के अनुसार भगवान् श्रीराम ने अपने वनवास काल के 14 वर्ष वर्षों में से 12 वर्ष 01 माह 25 दिन चित्रकूट में ही बिताये। चित्रकूट का महात्म्य, पुण्यशीलता, प्राकृतिक छटा का वर्णन श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण आदि में जीवन्त रूप में अध्ययन किया जा सकता है।

जिन महर्षि भरद्वाज ने भगवान् श्रीराम को चित्रकूट में वास करने का परामर्श दिया था वे महर्षि भरद्वाज केवल आध्यात्मिक ऋषि नहीं थे, अपितु ये वही प्रथम ऋषि थे जिन्होंने इन्द्रलोक तक की यात्रा कर भगवान् इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे भूलोक पर फैलाने का कार्य प्रारम्भ किया। संस्कृत में ‘द्वा’ का अर्थ होता है मैथुनी सृष्टि (जोड़ा)। जोड़े से जो सृष्टि हो उसे ‘द्वाज’ कहते हैं। इसे सृष्टि के भरण-पोषण, तोषण और कल्याण की जिसे चिन्ता हो उसे ‘भरद्वाज’ कहते हैं।

वह एक घटना इस प्रकार थी एक कालखण्ड ऐसा आया कि शरीरधारियों में रोग का आक्रमण होने लगा जिससे उनके तप, उपवास अध्ययन, धार्मिक व्रताचरण और जीवन के अन्य कार्यों में बाधा पड़ने लगी, तब लोक कल्याण के कार्य में लगे हुये इस भूलोक के ऋषिगण हिमालय की तलहटी में एकत्र हुये और इस विषय पर कई दिनों तक संगोष्ठी की। उस संगोष्ठी में हुए विमर्श से यह तथ्य उभर कर आया कि देवेन्द्र (इन्द्र) के पास आयुर्वेद का सम्पूर्ण ज्ञान है उनसे यह ज्ञान प्राप्तकर शरीरधारियों की रोगों से रक्षा की जाय तथा रोगी हो चुके मानव को रोगमुक्त किया जाय। पर समस्या थी कि इन्द्रलोक तक जाये कौन। और जाये वह, जिसमें ऐसी बुद्धि की विशालता हो कि इन्द्र के आयुुर्वेद के उपदेश को सम्यकतया ग्रहण कर सके तथा भू-लोक में आकर इसे फैला सके। यह चिंतन चल ही रहा था कि उस ऋषि गोष्ठी मे महर्षि भरद्वाज की पहली आवाज सुनायी दी-

अहमर्थे नियुज्पेऽयमत्रेति प्रथमं वचः। च. सू. 1/19

कि इस कार्य में मुझे लगाया जाय। इतना सुनकर सभी ऋषियों ने महर्षि भरद्वाज को इन्द्र के पास जाने के लिए नियुक्त कर दिया। महार्षि भरद्वाज जी इन्द्रलोक पहुँचे और इन्द्र से आयुर्वेद का उपदेश करने की प्रार्थना की। तब इन्द्र ने- पदैरल्पैर्मतिं बुद्ध्वा विपुलां परमर्षये।। च.सू. 1/23

महर्षि भरद्वाज की विपुल बुद्धि की परख कर थोड़े ही शब्दों में यानी सूत्र रूप में समग्र आयुर्वेद का उपदेश कर दिया। महर्षि भरद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर स्वयं सुखमय एवं दीर्घजीवन प्राप्त किया ततपश्चात् उस आयुर्वेद के ज्ञान को यथावत रूप में ऋषियों को प्रदान किया।

अथ मैत्रीपरः पुण्यमायुर्वेदं पुनर्वसुः। शिष्येभ्यो दत्तवान् षड्भ्यः सर्वभूतानुकम्पया।। च.सू. 1/30

महर्षि भरद्वाज से पुनर्वस् (आत्रेय) ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर आयुर्वेद को आगे बढ़ाया। पुनर्वसु (आत्रेय) के पिता महर्षि ‘अत्रि’ थे और उनकी माता चन्द्रभागा थीं जिनमें ‘असूय’ दोष (छिद्रान्वेषण का दोष) नहीं था, अतः उन्हें अनसूया भी कहा गया है। महर्षि अत्रि और अनसूया ने चित्रकूट को ही अपनी साधनास्थली बनाया था। महर्षि अत्रि अध्यात्म, विज्ञान और आयुर्वेद के धुरन्धर विद्वान थे। तपस्वी जीवन बिताते हुए वे अपने मिशन में तल्लीन थे। उनकी पत्नी माता अनसूया भी दक्ष प्रजापति जैसे विश्व सम्राट की पुत्री थीं। दक्ष प्रजापति केवल सम्राट ही नहीं थे बल्कि-

ब्रह्मणा हि यथाप्रोक्तमायुर्वेद प्रजापतिः। च.सू. 1/4 

के अनुसार उन्होंने ब्रह्मा से आयुर्वेद का समग्र ज्ञान प्राप्त किया था। यह व्यावहारिक तथ्य है कि पिता के ज्ञान, विज्ञान, कार्यकौशल और व्यवहार का प्रभाव संतान पर अवश्य पड़ता है। तो माता अनसूया भी पिता के आयुर्वेद ज्ञान प्रभाव से अवश्य जुड़ी थीं। इन दोनों आयुर्वेद मर्मज्ञों से पुनर्वसु (आत्रेय) जैसे महान आयुर्वेद महर्षि का जन्म हुआ. जिन्होंने चरक संहिता जैसे आयुर्वेद के कालजयी महाशास्त्र का सम्पूर्ण उपदेश किया। ‘अत्रिः कृतयुगे वैद्यः’ सूत्ति के अनुसार अत्रि कृतयुग में थे और आयुर्वेद के विज्ञाता थे। चरक संहिता के ‘आयुर्वेदसमुत्थनीय रसायनपाद’ के अनुसार इन्द्र के पास आयुर्वेद के ज्ञान की प्राप्ति हेतु गये महर्षियों में से एक ऋषि ‘अत्रि’ भी थे। जिनके काम क्रोध, लोभ ये तीन दोष ‘अपगत माना’ नष्ट हो चुके हैं वे ‘अत्री’ कहे गये। महर्षि अत्रि की वागिमता इतनी प्रसिद्ध थी कि वाणी और अत्रि दो नहीं एक तत्त्व माने जाने लगे। ऋषियों ने उपनिषदीं में वागेवात्रिः वृ.उ.2/2 लिखा।

अर्थात वाणी अत्रि के ही शरणागत हुयी। महर्षि अत्रि और अनसूया से तीन पुत्र दुर्वासा, पुनर्वसु और चन्द्रदेव हुये। जैसे अत्रि की वाणी में एक ओज और आकर्षण था, वही गुण उनके पुत्र पुनर्वसु को विरासत में मिला। अत्रि पुत्र होने से उन्हें पुनर्वसु जैसे अत्रि की वाणी में एक ओज और आकर्षण था, वही गुण उनके पुत्र पुनर्वसु को विरासत में मिला। अत्रि पुत्र होने से उन्हें पुनर्वसु आत्रेय कहा जाने लगा। दुर्वासा क्रोधी थे और चन्द्रदेव विलासी। इसलिये अत्रि के गुणों की विरासत पुनर्वसु ने सम्भाली और अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि जैसे शिष्यों वाला आयुर्वेद शिक्षा का भूमण्डल में पहला बैच चलाया। ‘अग्निवेश’ द्वारा निर्मित संहिता आज ‘चरक संहिता’ के नाम से विख्यात है। इस चरक संहिता के प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में ‘इति ह स्माह भगवानात्रेयः’ लिखा वाक्य अत्रि और उनके पुत्र ‘आत्रेय’ (पुनर्वसु) का प्रतिदिन स्मरण दिलाता है व महर्षि अत्रि का आयुर्वेद के साथ गहन सम्बन्ध का संकेत देता है।

चित्रकूट में आज भी स्थित यह ‘सती अनसूया अत्रि तीर्थ’ इन आयुर्वेद दम्पति ऋषियों की याद दिला रहा है। यहीं पर सती अनसूया जी अपनी तपः साधना, श्रम और प्रयास से मन्दाकिनी (देवगंगा) को चित्रकूट लायीं। गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में कहते है-

नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।।

सुरसरि धार नाउँ मन्दाकिनी। जो सब पातक पोतक डाकिनी।। रामचरित मानस, अयो. 131/5-6

अर्थात् पवित्र नदी मन्दाकिनी को अत्रि पत्नी अनसूया जी अपने तपबल से चित्रकूट में लायीं। यह देवगंगा की धारा है। इसका नाम मन्दाकिनी है जो सभी प्रकार पापों को खा जाने में समर्थ है। समुद्रमन्थन से अमृत और आयुर्वेद प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरि के प्राकट्य की गाथा सर्व विख्यात है। इस समुद्रमन्थन के लिए मन्दराचल पर्वत का भाग काटकर मथानी बनायी गयी थी। सप्तलोक अनसूया पर्वत के शिखर से कटा उक्त भाग आज भी यह इतिहास संजोए है। हम तो यह भी कह सकते हैं आयुर्वेद के विद्वान महर्षि अत्रि और माता अनसूया ने ही आयुर्वेद के इस महान कार्य के लिए अपने निवास पर्वत को काटकर मथनी बना लेने की सहमति दी होगी। जब देश गुलाम था, उस समय भी चित्रकूट से आयुर्वेद के लिए कार्य हो रहा था। उस समय जब देश में आयुर्वेद के पुनरुद्धार के उद्देश्य से निखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद विद्यापीठम् नई दिल्ली और हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने आयुर्वेद के पाठ्यक्रम संचालित किए तब चित्रकूट नयागाँव के राजा साहब ने ‘हनुमदायुर्वेद महाविद्यालय स्थापित कर चित्रकूट’ में आयुर्वेद के उत्तम शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य प्रारम्भ कराया। आज भी यहाँ के शिक्षित और प्रशिक्षित सैकडों आयुर्वेद स्नातक देश में आयुर्वेद की सेवायें दे रहे हैं।

निर्गुण्डी तो पूरे देश में पायी जाती है पर निर्गुण्डी में जो पीत रंग का पराश्रयी कन्द निकलता है वह केवल चित्रकूट की ही भूमि में ही उत्पन्न होता है। इस बात का उल्लेख वैद्यनाथ प्रा.लि. के संस्थापक वैद्य रामनारायण शर्मा ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘आरोग्य प्रकाश’ में किया है। यह पराश्रयी कन्द अद्वितीय वातशामक पौष्टिक तथा बलवर्धक है। इसमें कुष्ठ जैसे महारोग को भी नष्ट करने की औषधीय शक्ति है। चित्रकूट का जितना आध्यात्मिक महत्व है उतना ही आयुर्वेदीय महत्व भी है। इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि चित्रकूट केवल भगवान श्रीराम की तपस्थली ही नहीं अपितु आयर्वेद की भूमि भी है। यहाँ से आयुर्वेद की सेवा का कार्य करने के लिए ईश्वर ने हमें लगाया है लोककल्याण हेतु यह कार्य, निष्ठा कर्मठता और त्रे ईमानदारी पूर्वक जितना अधिक से अधिक हो, यही हमारा प्रयास रहेगा।

चित्रकूट में पाए जाने वाले प्रमुख औषधीय पौधे

अंकोल, अड्सा, अदरक, अनन्तमूल, अमलतास, असगन्ध, आॅवला, आक. इमली, ईसरमूल, ऊँटकटरा, औधी, कटकरंज, करंज, कलिहारी, कसोंदी, कहुआ, कालमेघ, काला धतूरा, काली मुसली, केंवाच, कुड़ा, कैथ, खैर, खरेंटी, गिलोय, गुंजा, गुड़मार, गुलसकरी, गूलर, गेंदा, गोखरू, गंभार, गोभी, अकोड़ा, चिरचिरा, जंगली, प्याज, जलजमनी,जामुन, ढाक, तुलसी, थूहर, दंती, दूधी, दशमूल, धवई. नाही, निर्गुण्डी, नीम पाढ़ी, पीपल, पुनर्नवा, बबूल, बहेड़ा, वायविडंग, बिच्छू, विधारा, बेल, ब्रह्मदण्डी, ब्राह्मी, भटकटैया, भाँगरा, भुई आँवला, मकोय मत्स्याक्षी, महुआ, मालकंगनी, मरोड़फली, मूसाकानी, मेहँदी, मुण्डी, मेंढ़की, मोरपंखी, शंखपुष्पी नीली, शंखाहुली, सतावरी, सत्यानासी, करथई, सफेद मुसली, सरिवन, सरफोंका, सहदेई. सहिजन, सहदेवी, सिन्दूरी, सिरिस, सिहोरा, सेमल, सोनपाढ़ा, हरसिंगार, हल्दी।

- डाॅ. मदन गोपाल बाजपेयी

(लेखक भारतीय चिकित्सा परिषद, उ.प्र. के पूर्व उपाध्यक्ष, आयुष ग्राम ट्रस्ट के संस्थापक एवं चिकित्सा पल्लव के प्रधान सम्पादक हैं)

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