History of Banda | बांदा जनपद का इतिहास | Banda Documentary in Hindi | Banda Tourism Places

यमुना के दक्षिण में एक शहर है जिसे वामदेव ऋषि की तपोस्थली के रूप में जाना जाता है। उन्हीं के नाम पर इसे बाँदा कहा जाने लगा।


पूर्व से लेकर पश्चिम तक इसकी चैड़ाई लगभग 75 किलोमीटर जबकि उत्तर से दक्षिण तक यह लगभग 55 किलोमीटर लम्बाई में फैला है। बाँदा के उत्तर में फतेहपुर जनपद जबकि दक्षिण में पन्ना व छतरपुर की सीमायें इसे छूती हैं। पश्चिम में महोबा व हमीरपुर जबकि पूर्व में यह चित्रकूट की सीमा से जुड़ा हुआ है। यहां की प्रमुख नदियां केन, यमुना और बागैन हैं।

देश की आजादी के पहले से ही बाँदा जनपद अस्तित्व में था। सन् 1998 ई. तक कर्वी व मऊ तहसीलें बाँदा जनपद में ही सम्मिलित थीं। पर उसके बाद इन तहसीलों को बाँदा जनपद से अलग कर चित्रकूट जनपद के नाम से नया जनपद बना दिया गया। बाँदा जनपद की एक पहचान वामदेव ऋषि हैं तो दूसरी पहचान के रूप में कालिंजर का विश्व प्रसिद्ध कालजयी दुर्ग है। कालिंजर ने हर युग में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापरयुग में सिंहलगढ़ और कलियुग में इसे कालिंजर के नाम से लोगों ने जाना है।चन्देलों की पुत्री और गोंडवाने की रानी दुर्गावती का यही जन्मस्थान भी है, इसीलिए यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

चन्देलों ने इस क्षेत्र पर राज्य किया। मुगल आक्रमणकारी महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायुं ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया परन्तु यहाँ पर वे सफल नहीं हुए। अन्त में मुगल शासक अकबर ने सन् 1569 ई. में इस क्षेत्र को जीता और अपने नवरत्नों में से एक बीरबल को यह राज्य उपहार में दे दिया। अकबर के बाद बुन्देलों की शक्ति मजबूत होने पर यह क्षेत्र बुन्देला राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इसके बाद इस पर पन्ना के हरदेव शाह का आधिपत्य हुआ। सन् 1762 ई. में अवध नवाब ने बुन्देलखण्ड पर कब्जा करने की कोशिश की पर बुन्देलों की सेना ने अवध नवाब की सेना को तिन्दवारी के पास हरा दिया। सन् 1791 ई. में अली बहादुर ने अपने आप को बाँदा का नवाब घोषित कर दिया। दरअसल बाँदा के नवाब उन्हीं बाजीराव पेशवा की संतान हैं जिन्हें बुन्देला राजा छत्रसाल ने अपना तीसरा पुत्र घोषित कर एक तिहाई राज्य दे दिया था। बाजीराव व मस्तानी की संतानों ने यहां कई वर्ष राज्य किया।

देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में बाँदा के क्रान्तिकारियों ने भी शहादत दी थी। 14 जून 1857 को केन तट पर स्थित भूरागढ़ के किले में 800 क्रान्तिकारी अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हुए थे। सन् 1858 में बाँदा में अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेजी शासन में जब यूनाइटेड प्रोविंस बना तो बाँदा को जनपद का दर्जा मिला।

नगर की जीवन दायिनी केन नदी के तट पर बसे बाँदा की पहचान इसी केन नदी में पाये जाने वाले शजर पत्थर से भी होती है। शजर पत्थर को तराश कर इसे आभूषणों में प्रयोग किया जाता है, जिसकी विदेशों में बड़ी मांग है। यह शजर पत्थर दुनिया में और कहीं नहीं पाया जाता, यह सिर्फ यहां बहने वाली केन नदी की तलहटी में मिलता है।

गजट की बात करें तो उसमें दर्ज जानकारी के मुताबिक 12वीं शताब्दी में मौहार राजपूत वंश के शासक ब्रजराज के भाईयों भवानी और लड़ाका की यह जागीर था। ब्रजराज ने इस इलाके को कोल-भीलों से आजाद कराकर उसे अपने भाईयों को सौंप दिया था। बाँदा का उत्तरी भाग भवानी सिंह को दिया तो यह भाग भवानीपुरवा कहलाया और इसी प्रकार दक्षिणी भाग लड़ाका सिंह को दिया तो वह भाग लड़ाकापुरवा कहलाया। आज भी जमीनों की खरीद-फरोख्त में इन्हीं दो हिस्सों का जिक्र होता है। 

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