सरे बाजार वसीयत के नाम पर बिक गयी मस्जिद
बेची गयी या बिन पैसों के दी गयी, तरीका जो भी हो पर इस मस्जिद की वसीयत जरूर हुई है और वो भी एक बाहरी को! ताज्जुब है, पर सच यही है
जानकारों की माने तो मन्दिर या मस्जिद किसी के नाम नहीं किए जा सकते। लेकिन बुन्देलखण्ड के बाँदा जनपद में ऐसा हुआ है। जहां एक मस्जिद को किसी और के नाम कर दिया गया। बेची गयी या बिन पैसों के दी गयी, तरीका जो भी हो पर इस मस्जिद की वसीयत जरूर हुई है और वो भी एक बाहरी को! ताज्जुब है, पर सच यही है कि बाँदा की एक मस्जिद को एक बिहारी बाबू के हाथों में दे दिया गया है। और अब यह मस्जिद पूरी तरह से उस बिहारी बाबू के हाथों का खिलौना बन चुकी है।
अब्दुल मुईज उर्फ मोहम्मद जमील खान वल्द मरहूम अब्दुल हाफिज ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत बाँदा शहर के बलखण्डी नाका करहिया कुआं स्थित मस्जिद और मस्जिद की नौ दुकानें बिहार के किशनगंज जनपद निवासी मोहम्मद अफसर आलम के नाम कर दी।
हैरतअंगेज़ बात तो ये है कि जमील खान ने अपनी सन्तानों के नाम इस मस्जिद और इसकी दुकानों की वसीयत ना करके बिहार के रहने वाले मोहम्मद अफसर आलम के नाम कर दी। दस्तावेजों की माने तो जमील खान के नाना मरहूम इब्राहीम खान ने एक जमीन मकान बनवाने की नीण्यत से अपनी पत्नी राबिया खातून के नाम बलखण्डी नाका में खरीदी थी। जमीन को खरीदते ही, जैसे आज कोरोना महामारी फैली है, उसी तरह उस वक्त प्लेग की बीमारी फैली थी, जिसमें राबिया खातून अल्लाह को प्यारी हो जाती हैं। इस पर उस जमीन को मरहूम इब्राहीम खान ने रिहायशी मकान न बनवाकर उसे मस्जिद के लिए दान स्वरूप दे दिया।
बावजूद इसके नाना मरहूम इब्राहीम खान ने अपनी दूसरी पत्नी मैमूना खातून जिनके कोई औलाद नहीं थी, के नाम 28 सितम्बर 1957 को यह जमीन लिख दी। इस बात के गवाहान जोकि अब गुजर गये हैं, वो थे शहर के गूलरनाका निवासी मरहूम मोहम्मद जहीर उद्दीन फारूखी और मरहूम हाफिज कारी अब्दुल सलाम उर्फ बस्सन। अब नाना के इंतकाल के बाद नानी मैमूना ने अपनी देखभाल के लिए अपने मरहूम शौहर के इकलौते नाती यानि जमील खान और उसकी छोटी बहन को अपने साथ रख लिया। दावा है कि उसी टुकड़े में बने कमरे आदि को 21 अगस्त 1998 को नानी मैमुना खातून ने अपने नवासे जमील के नाम वसीयत कर दी। अपने इंतकाल से पहले मरहूम मैमुना खातून ने ऐसी इच्छा जताई थी कि गरीब बच्चों के लिए यहां एक मदरसा बनवाया जाएगा, किन्तु मैमुना की ये इच्छा पूरी होती, उसके पहले मैमुना अचानक चल बसीं। बस उस इच्छा को पूरी करने के लिए मोहम्मद जमील खान ने सारे नियम-कानून को ध्वस्त करते हुए बिहार के मोहम्मद अफसर आलम को यह मस्जिद ही वसीयत कर दी।
दरअसल बिहार के किशनगंज से बाँदा आकर अपना हाल-मुकाम खोज रहे मोहम्मद अफसर आलम की बाजीगरी में मोहम्मद जमील फंस गये और अपनी नानी की आखिरी इच्छा को पूरा करने का भार मोहम्मद अफसर आलम के कांधों पर डालते हुए उसे यह मस्जिद ही वसीयत कर दी।
फिर क्या था, एक सोची-समझी साजिश के तहत यहां एक मदरसा भी खुल गया। जबकि नियमतः मस्जिद में मदरसा नहीं खोला जा सकता। हालांकि मदरसे में तो मस्जिदें बनी पाई गयी हैं पर मस्जिद चूंकि खुद में छोटी होती है, लिहाजा मदरसे के मानक पूरा कर पाना इतना आसान नहीं होता। लेकिन सारे कायदे-कानून ध्वस्त करते हुए बिहार से आये इस युवा तुर्क ने मदरसा दारुल उलूम अनवार ए मुस्तफा रजिस्टर्ड कराया, जिसका उसे रजिस्ट्रेशन नंबर 03869/1920 भी मिला।
इसी मस्जिद के ठीक पीछे रहने वाले वामदेवपीठाधीश्वर जगद्गुरू सूर्यप्रकाशानन्द महाराज कहते हैं
जबसे इस मस्जिद को बिहार के रहने वाले एक व्यक्ति के हाथों में दे दिया गया है तब से यहां पर बाहरी तत्वों की आवाजाही बढ़ गयी है। पहले जो लोग यहां आते थे, उन्हें मोहल्लेवासी जानते पहचानते थे, पर अब अनजान लोगों के कारण मोहल्ले की सुरक्षा को भी खतरा है। मस्जिद से पुराने लोगोें को हटा दिया गया है। नजूल की जमीन पर बनी यह मस्जिद अब मदरसे में परिवर्तित होती जा रही है। जबकि यह अवैध है।
बाँदा के एक प्रमुख समाजसेवी व राष्ट्रीय तिरंगा वितरण समिति के अध्यक्ष शोभाराम कश्यप कहते हैं
लगातार यहां अनजान लोगों की आवाजाही से मोहल्ला असुरक्षित महसूस होने लगा है। कोरोना काल में यहां लोगों को फूंक डाली जाती रही जिससे कोरोना के संक्रमण का खतरा लगातार बढ़ने की सम्भावना है।
क्रमशः....