खूब धधक रहें हैं उत्तराखंड-बुंदेलखंड के जंगल, लगता है प्रकृति फिर रूठ गयी है

लगता है प्रकृति फिर रूठ गई है। एक तरफ कोरोना का कहर जारी है तो दूसरी तरफ देश के तमाम प्रांतों के जंगल धधक रहे हैं..

खूब धधक रहें हैं उत्तराखंड-बुंदेलखंड के जंगल, लगता है प्रकृति फिर रूठ गयी है
फाइल फोटो

@राकेश कुमार अग्रवाल 

लगता है प्रकृति फिर रूठ गई है। एक तरफ कोरोना का कहर जारी है तो दूसरी तरफ देश के तमाम प्रांतों के जंगल धधक रहे हैं। जंगलों में लगी यह आग लगातार विकराल होती जा रही है।

जिसने पेड पौधों ही नहीं पक्षियों और जानवरों को भी अपनी जद में ले लिया है। उडीसा के सिमलीपाल नेशनल पार्क की आग बुझ भी न पाई थी कि उत्तराखंड और बुंदेलखंड के जंगल भी आग के कारण धधकने लगे हैं। और आग का यह दायरा लगातार फैलता ही जा रहा है। 

आग और वनस्पति का हमेशा से बैर रहता आया है। इसलिए जंगल में यदि आग लगती है तो वह फैलती जाती है क्योंकि जंगल में  पेड पौधे  सब इतने करीब होते हैं कि आग का नेटवर्क बन जाता है। जो तेजी से पूरे जंगल को अपनी में ले लेता है। इस साल जंगलों में आग की शुरुआत उडीसा के सिमलीपाल नेशनल पार्क से हुई जहां की 21 रेंजों में से एक दर्जन से अधिक रेंज आग की भेंट चढ गई थीं।

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वहां फरवरी माह के अंतिम हफ्ते की शुरुआत में ही पहली बार स्थानीय लोगों ने आग देखी थी। लेकिन सूचना के बाद भी प्रशासन हरकत में नहीं आया था दूसरी ओर आग का दायरा बढता गया जो बढते बढते सैकडों स्थानों पर पहुंच गया।

सिमलीपाल को एशिया का दूसरा सबसे बडा बायोस्फेयर रिजर्व माना जाता है जो साढे पांच हजार वर्ग किमी। से अधिक क्षेत्र में फैला है। सिमलीपाल नेशनल पार्क में टाइगर रिजर्व भी है।

जहां पर टाइगरों से लेकर हाथी एवं तमाम दुर्लभ वनस्पतियां पाई जाती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर जब मीडिया ने सिमलीपाल नेशनल पार्क की धधकती  आग को खबर बनाया तब जाकर व विभाग, अग्निशमन विभाग व केन्द्र सरकार सक्रिय हुई थी। 

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उत्तराखंड का हाल और भी भयावह है वहां के 13 जिलों में से  11 जिलों के जंगल दहक रहे हैं। पौडी, अल्मोडा, पिथौरागढ, बागेश्वर व टिहरी जिलों में धधक रहे जंगलों ने सबसे ज्यादा तबाही मचाई है। उत्तराखंड की रिपोर्टों के अनुसार वहां बेकाबू हो रही जंगल की आग से अब तक 1360 हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल झुलस चुके हैं।

इनमें 788 हेक्टेयर गढवाल मंडल और 540 हेक्टेयर कुमाऊँ मंडल के जंगल शामिल हैं। संरक्षित वन क्षेत्रों के 32 हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल भी धधकती आग की चपेट में आ चुके हैं।

जंगलों की आग गांवों तक पहुंचने से पांच गौशालायें भी जल गई हैं। उत्तरकाशी व चम्पावत जिलों में भी जंगल आग की जद में आ चुके हैं। सबसे ज्यादा आग की चपेट में पौडी और अल्मोडा जिलों के जंगल हैं जहां का सबसे ज्यादा क्षेत्र आग से झुलस रहा है। 

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उत्तर प्रदेश एवं मध्यप्रदेश दो राज्यों में बंटा बुंदेलखंड भी जंगल की आग से अछूता नहीं है। चित्रकूट के पाठा के जंगलों में लगी आग मध्यप्रदेश की सीमा से सटे घने जंगलों तक करीब 40 किमी. के दायरे में फैल चुकी है। रानीपुर वन्य जीव विहार की आग बुझने के बजाए बढती जा रही है।

यह आग रानीपुर के अलावा मानिकपुर, मारकुंडी रेंज के सभी जंगलों को चपेट में ले चुकी है। मानिकपुर रेंज के रानीपुर, कल्याणपुर, निही चिरैया, मरवरिया, बेधक, गिरदुहा के जंगल, मारकुंडी वन रेंज के डोंडा, गौतमपुर, कुसमुही व मुरली जंगलों में आग विकराल रूप ले चुकी है।

फैलती आग ने ओहन व मानिकपुर सतना रेल मार्ग के बांसा पहाड के आसपास रेलवे ट्रैक तक पहुंची जंगल की आग के चलते रेलवे की सिग्नल केबल जल गई। मानिकपुर के हनुवा व रूखमाखुर्द के जंगलों तक आग पहुंच चुकी है। बांदा - मानिकपुर के मध्य बहिलपुरवा स्टेशन की पटरी तक आग की लपटें पहुंची हैं। आग किसानों के खेतों तक भी जा पहुंची है। जिससे बडा संकट पैदा हो गया है।

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जंगलों में आग लगने की ये घटनायें कोई पहली बार नहीं है। अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक के जंगलों में फैली आग महीनों तबाही मचाती रही हैं। लेकिन सवाल उठता है कि जंगलों में आग की घटनाओं में इतना इजाफा क्यों हो रहा है। पर्यावरण विद और मौसम विज्ञानी कई वर्षों से चेताते आ रहे हैं कि धरती का तापमान लगातार बढ रहा है।

ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हो या फिर कार्बन का उत्सर्जन थमने का नाम नहीं ले रहा है। जिसके चलते समुद्री जल स्तर में इजाफा हो रहा है। समुद्री तटों पर बसे दुनिया के कई शहरों के डूबने का खतरा मंडरा रहा है। दूसरी तरफ तालाबों, कुँओं के गायब होने, नदियों के सिकुडने व सागरों को कचरा प्लास्टिक का डंपिंग यार्ड बनाने से धरती की नमी गायब होती जा रही है।

एक ओर दुनिया जल संकट से जूझ रही है तो दूसरी ओर खत्म होती धरती की नमी से जंगलों को आग से बचाने वाला प्राकृतिक सिस्टम भी नष्ट होता जा रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पहाड गायब हो रहे हैं।

शहरों, गांवों, कस्बों के आसपास के जंगल गायब होकर उनकी जगह बस्तियां बसती जा रही हैं। छोटे छोटे यह सभी संकेतक बार बार चेता रहे हैं कि प्रकृति के मूल स्वरूप से बेजा छेडछाड न की जाए। अन्यथा वह समय दूर नहीं जब जंगलों की आग कभी बस्तियों तक न आ जाए।

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