सेना की ये खुफिया बटालियन ‘विकास रेजिमेंट’ खदेड़ चुकी है चीनियों और पाकिस्तानियों को

पैगॉन्ग झील के दक्षिणी तट की जिस थाकुंग और काला टॉप चोटी पर भारतीय सेना की विकास रेजिमेंट ने कब्ज़ा करके चीनियों को खदेड़ा...

सेना की ये खुफिया बटालियन ‘विकास रेजिमेंट’ खदेड़ चुकी है चीनियों और पाकिस्तानियों को

नई दिल्ली

  • सन 1971 के युद्ध में नष्ट की थी पाकिस्तानी सेना की संचार व्यवस्था
  • अमृतसर के ऑपरेशन ब्लू स्टार और कारगिल संघर्ष में भी दिखाई बहादुरी
  • अब लद्दाख में अग्रिम मोर्चे की बर्फीली चोटियों पर तैनात हुए एसएफएफ के जवान

पैगॉन्ग झील के दक्षिणी तट की जिस थाकुंग और काला टॉप चोटी पर भारतीय सेना की विकास रेजिमेंट ने कब्ज़ा करके चीनियों को खदेड़ा, उसकी बहादुरी के तमाम किस्से हैं लेकिन 29-30 अगस्त की रात से पहले गुमनामी में थे, क्योंकि यह भारतीय सेना की खुफिया बटालियन है।अब जब बटालियन के जवानों ने चीनी सैनिकों को मुंहतोड़ जवाब दिया तो इसकी चर्चा सामने आई है। चीन को मात देने वाली विकास रेजिमेंट बटालियन के जवानों की भारतीय सेना में ऐतिहासिक भूमिका रही है। यह सेना की स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (​​एसएफएफ) इकाई है, जिसे उत्तराखंड से लाकर लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के कुछ प्रमुख ऊंचाइयों वाले मोर्चों पर तैनात किया गया है।

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भारत-चीन सीमा युद्ध के बाद​ ​नवम्बर 1962 में ​​​​​​​​खुफिया ब्यूरो ​के ​निदेशक ​​बी​​​​एन​ ​​मुल्लिक ने कुछ तिब्बती सैनिकों की भर्ती करने का फैसला किया। उस समय ​​तिब्बती गुरिल्ला आंदोलन सक्रिय था​ और बहुत सारे सैनिक और कुछ अधिकारी पश्चिम बंगाल के कालिम्पोंग या दार्जिलिंग में थे। मलिक ने दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोंडुप के साथ संपर्क किया। अगले कुछ महीनों में उन्होंने उन शरणार्थियों में से तिब्बतियों को भर्ती किया जो 1959 के बाद भारत आए थे। ​उस समय उनके पास छह-सात हजार ​तिब्बती ​थे, जो वापस तिब्बत ​​जाने और चीनी कब्जे से मुक्त​ कराना चाहते थे​​​​​​​​​​​​​​​​। भर्तियों का एक समूह विभिन्न तिब्बती बस्तियों में गया और हर युवा तिब्बती तिब्बत के लिए लड़ने के लिए उत्सुक था लेकिन वह उद्देश्य कभी पूरा नहीं हुआ।

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तिब्बती सेनाओं ने कभी चीन के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी। ​​इस तरह ​स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का गठन 1962 के चीन-भारत युद्ध के तुरंत बाद किया गया था​​। इसमें सिर्फ तिब्बतियों को भर्ती किया गया था और शुरू में इसे 22 बटालियन के नाम से जाना जाता था। ​इसका नाम 22 बटालियन इसलिए रखा गया था, क्योंकि इसका गठन 22 माउंटेन रेजिमेंट के आर्टिलरी अधिकारी मेजर जनरल सुजान सिं​​ह उबान ने किया था​ और वे ​ही एसएफएफ ​​के पहले महानिरीक्षक थे​। ​अब इसमें तिब्बतियों के साथ-साथ गोरखाओं को भी भर्ती किया जाने लगा है।

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​समय के साथ स्पेशल फ्रंटियर फोर्स​ ​भारतीय सेना के अधीन हो गई और इसे विकास बटालियन का नाम दिया गया​।​​​ ​​​​यह बटालियन अब कैबिनेट सचिवालय के दायरे में आती है, जहां इसका नेतृत्व मेजर जनरल के रैंक के सेना अधिकारी महानिरीक्षक​ (सुरक्षा)​ के रूप में करते हैं। डीजीएस अब भारत की बाहरी एजेंसी ​रॉ ​का हिस्सा है।​ ​एसएफएफ में शामिल इकाइयां विकास बटालियन के रूप में जानी जाती हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह ने अपनी सेवा में रहते हुए एक समय पर इसका नेतृत्व किया है।

क्या एसएफएफ यूनिट्स आर्मी का हिस्सा हैं?  
हकीकत यह है कि एसएफएफ इकाइयां सेना का हिस्सा नहीं हैं लेकिन वे सेना के अधीन काम करती हैं।इन इकाइयों की अपनी रैंक संरचनाएं होती हैं लेकिन वे सेना की रैंक के बराबर होती हैं। बटालियन के जवान इतने उच्च प्रशिक्षित होते हैं कि वे विभिन्न प्रकार के वह कार्य कर सकते हैं, जिन्हें सामान्य रूप से कोई 'स्पेशल फ़ोर्स यूनिट' करने में सक्षम होती है। इसलिए एसएफएफ इकाइयां एक अलग चार्टर और इतिहास होने के बावजूद परिचालन क्षेत्रों में किसी अन्य सेना इकाई के रूप में कार्य करती हैं। उनके पास अपना स्वयं का प्रशिक्षण प्रतिष्ठान है, जहां एसएफएफ में भर्ती होने वाले विशेष बलों का प्रशिक्षण दिया जाता है। संयोग से महिला सैनिक भी इन इकाइयों का हिस्सा बनती हैं और विशेष कार्य करती हैं। एसएफएफ इकाइयों ने कई गुप्त ऑपरेशन में भी हिस्सा लिया है। इनमें पाकिस्तान के साथ सन 1971 के युद्ध में, गोल्डन टेम्पल अमृतसर में ऑपरेशन ब्लू स्टार, कारगिल संघर्ष और देश में आतंकवाद विरोधी अभियान प्रमुख हैं। इसके अलावा कई अन्य ऑपरेशन ऐसे भी हैं, जिनका खुलासा नहीं किया जा सकता।

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एसएफएफ इकाइयों ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के चटगांव पहाड़ी इलाकों में पाकिस्तानी सेना को बेअसर किया और भारतीय सेना को आगे बढ़ने में मदद की। इस ऑपरेशन का नाम कोड 'ऑपरेशन ईगल' था। इसी बटालियन के सदस्यों ने दुश्मन के इलाकों में जाने का जोखिम उठाया और पाकिस्तानी सेना की संचार व्यवस्था नष्ट कर दी। उन्होंने बांग्लादेश से बर्मा (अब म्यांमार) में पाकिस्तानी सेना के जवानों को भागने से रोकने में भी अहम भूमिका निभाई। एक अनुमान के अनुसार 1971 के युद्ध के दौरान गुप्त अभियानों में 3,000 से अधिक एसएफएफ जवानों को लगाया गया था। इसके लिए बड़ी संख्या में एसएफएफ जवानों को उनकी बहादुरी के लिए पुरस्कार मिला। अब लद्दाख में अग्रिम मोर्चे की बर्फीली चोटियों पर तैनात एसएफएफ के जवान अपनी बहादुरी दिखाने के लिए तैनात हैं। अपने कारनामों की शुरुआत पैगॉन्ग झील के दक्षिणी तट की थाकुंग या काला टॉप चोटी पर कब्ज़ा करके चीनियों को खदेड़कर की है।

हिन्दुस्थान समाचार

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