शजर पत्थर को मिला जी आई टैग, बांदा का विदेशों में लहराया परचम

 यूपी के जनपद बांदा में एक जिला एक उत्पाद के तहत शामिल शजर पत्थर को अब जी आई टैग में शामिल किया...

शजर पत्थर को मिला जी आई टैग, बांदा का विदेशों में लहराया परचम

यूपी के जनपद बांदा में एक जिला एक उत्पाद के तहत शामिल शजर पत्थर को अब जी आई टैग में शामिल किया गया है। जिससे शजर पत्थर को देश विदेश में नई पहचान मिलेगी। शजर पत्थर से आभूषण व कलाकृतियां बनाने वाले कारीगरों के हुनर को नई दिशा मिलेगी साथ ही कारीगरों  की बनाई गई कलाकृतियों की उचित कीमत मिलेगी।

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इस बारे में जी आई विशेषज्ञ पद्मश्री डॉ रजनी कांत ने बताया कि नाबार्ड उत्तर प्रदेश व राज्य सरकार के सहयोग से उत्तर प्रदेश के 11 उत्पादों को इस वर्ष जीआई टैग में शामिल किया गया है। जिसमें चित्रकूट धाम मंडल बांदा के शजर पत्थर को क्राफ्ट में शामिल किया गया है। बांदा शहर में बुंदेलखंड शजर हस्त कला उद्योग एवं केन हस्तशिल्प उत्थान समिति के प्रोपराइटर द्वारिका प्रसाद सोनी (राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त) का शजर को इस मुकाम तक पहुंचाने में बड़ा योगदान है। उन्होंने विगत कई वर्षों से इस उद्योग को जिले के साथ ही प्रदेश  देश तथा विदेश तक पहुंचा कर अपनी ख्याति प्राप्त की है। नाबार्ड के एजीएम अनुज कुमार सिंह ने सभी उत्पादकों को बधाई देते हुए कहा है कि आने वाले समय में नाबार्ड इन जी आई उत्पादों को और आगे ले जाने का प्रयास करेगा। 

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शज़र पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं।ये पत्थर आज भी अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर हैं। शज़र पत्थर केन नदी में पाया जाता है। जो बांदा जिले के पश्चिम में बुंदेलखंड क्षेत्र में बहती है। इसके खनन से लेकर इसे तराशने तक बहुत सी प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। शज़र पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं। आभूषण और सजावटी सामान बनाने में इस पत्थर का प्रयोग किया जाता है। इस पत्थर की कहानी दिलचस्प है। केन नदी में ये हमेशा से मौजूद था। लेकिन इसकी पहचान लगभग 400 साल पहले अरब से आए लोगों ने बांदा में की थी। वो इसको देख कर दंग रह गए। फारसी भाषा में इसका मतलब है शाख, टहनी या छोटा सा पौधा। इसे आम बोलचाल की भाषा में हकीक ए- शजरी भी कहते हैं। इन पत्थरों में फूल पत्तियां और दृष्यावलियां प्राकृतिक रूप सी बनी हुई मिलती हैं। शायद इसीलिए इसे शज़र का नाम दिया गया है। मुगलों के राज में शज़र की डिमांड बढ़ गई थी। उस समय एक से एक कारीगर हुए, जिन्होंने इससे बेजोड़ कलाकृतियां बनाईं। धीरे-धीरे बांदा शज़र पत्थर का केंद्र बन गया। कई कारखाने खुल गए और तमाम लोगों को इससे रोज़गार मिला। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में शज़र पत्थर और इससे बनने वाली कलाकृतियों की काफी मांग है। 

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शजर को नया रूप देने का काम हाथ से और केवल एक घिसाई मशीन से होता है। ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं। तैयार शज़र पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1,2,3 ग्रेड में रखकर उसकी कीमत लगाई जाती हैं। इनकी कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं। जानकारों का मानना है कि पूरे विश्व में कहीं और इस तरह का पत्थर नहीं पाया जाता है।

हस्तशिल्पी द्वारिका सोनी का कहना है कि 1911 में लंदन में शजर प्रदर्शनी लगी। जिसमें हस्त शिल्पी मोती भार्गव गए थे। प्रदर्शनी में खुद रानी विक्टोरिया ने इस नायाब पत्थर के नगीने को अपने गले का हार बनाया।

वो इसे अपने साथ ले गयी थीं. धीरे-धीरे शजर कला ने उद्योग का रूप ले लिया। विदेशों में आज भी शजर के कद्रदान मौजूद हैं। दिल्ली, लखनऊ, जयपुर में लगने वाली शजर प्रदर्शनियों में अक्सर ईराक, सऊदी अरब, ब्रिटन आदि देशों के लोग शजर की खरीददारी करते हैं। आज दुनिया भर में शज़र पत्थर मशहूर हैं। आज भी यह बांदा में सिर्फ केन नदी की तलहटी में पाया जाता है। ये पत्थर आभूषणों, कलाकृति जैसे ताज महल, सजावटी सामान और कुछ अन्य वस्तुएं जैसे वाल हैंगिंग में लगाने के काम में प्रयोग होता हैं।

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स्थानीय लोगों की मानें तो शजर पत्थर पर ये आकृतियां तब उभरती हैं। जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात को किरण उस पत्थर पर पड़ती हैं। उस समय जो भी चीज बीच में आती है, उसकी आकृति पत्थर पर उभर आती है। हालांकि, विज्ञान के अनुसार शज़र पत्थर डेंड्रिटिक एगेट पत्थर है और ये कुदरती आकृति जो इस पर अंकित होती है दरअसल वो फंगस ग्रोथ होती हैं।

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